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चौलाई ( Hindi )

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चौलाई (अंग्रेज़ी : आमारान्थूस्), पौधों की एक जाति है जो पूरे विश्व में पायी जाती है। अब तक इसकी लगभग ६० प्रजातियां पाई व पहचानी गई हैं, जिनके पुष्प पर्पल एवं लाल से सुनहरे होते हैं। गर्मी और बरसात के मौसम के लिए चौलाई बहुत ही उपयोगी पत्तेदार सब्जी होती है। अधिकांश साग और पत्तेदार सब्जियां शित ऋतु में उगाई जाती हैं, किन्तु चौलाई को गर्मी और वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है। इसे अर्ध-शुष्क वातावरण में भी उगाया जा सकता है पर गर्म वातावरण में अधिक उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए बिना कंकड़-पत्थर वाली मिट्टी सहित रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। इसकी खेती सीमांत भूमियों में भी की जा सकती है।

औषधीय उपयोगिता

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रेड रूट आमारान्थूस्

चौलाई का सेवन भाजी व साग (लाल साग) के रूप में किया जाता है जो विटामिन सी से भरपूर होता है। इसमें अनेकों औषधीय गुण होते हैं, इसलिए आयुर्वेद में चौलाई को अनेक रोगों में उपयोगी बताया गया है। सबसे बड़ा गुण सभी प्रकार के विषों का निवारण करना है, इसलिए इसे विषदन भी कहा जाता है। इसमें सोना धातु पाया जाता है जो किसी और साग-सब्जियों में नहीं पाया जाता। औषधि के रूप में चौलाई के पंचाग यानि पांचों अंग- जड, डंठल, पत्ते, फल, फूल काम में लाए जाते हैं।[1] इसकी डंडियों, पत्तियों में प्रोटीन, खनिज, विटामिन ए, सी प्रचुर मात्रा में मिलते है। लाल साग यानि चौलाई का साग एनीमिया में बहुत लाभदायक होता है। चौलाई पेट के रोगों के लिए भी गुणकारी होती है क्योंकि इसमें रेशे, क्षार द्रव्य होते हैं जो आंतों में चिपके हुए मल को निकालकर उसे बाहर धकेलने में मदद करते हैं जिससे पेट साफ होता है, कब्ज दूर होता है, पाचन संस्थान को शक्ति मिलती है। छोटे बच्चों के कब्ज़ में चौलाई का औषधि रूप में दो-तीन चम्मच रस लाभदायक होता है। प्रसव के बाद दूध पिलाने वाली माताओं के लिए भी यह उपयोगी होता है। यदि दूध की कमी हो तो भी चौलाई के साग का सेवन लाभदायक होता है। इसकी जड़ को पीसकर चावल के माड़ (पसावन) में डालकर, शहद मिलाकर पीने से श्वेत प्रदर रोग ठीक होता है। जिन स्त्रियों को बार-बार गर्भपात होता है, उनके लिए चौलाई साग का सेवन लाभकारी है।

अनेक प्रकार के विष जैसे चूहे, बिच्छू, संखिया, आदि का विष चढ गया हो तो चौलाई का रस या जड़ के क्वाथ में काली मिर्च डालकर पीने से विष दूर हो जाता है। चौलाई का नित्य सेवन करने से अनेक विकार दूर होते हैं।

प्रजातियाँ

चौलाई की कई प्रजातियां भारत में मिलती और प्रयोग की जाती हैं।[2]

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पॉपिंग आमारान्थूस्
छोटी चौलाई

इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। इसके पौधे सीधे बढ़वार वाले तथा छोटे आकार के होते है, पत्तियाँ छोटी तथा हरे रंग की होती है। यह किस्म वसंत तथा बरसात में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है।

बङी चौलाई

इस किस्म को भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है। इसकी पत्तियाँ बङी तथा हरे रंग की होती है और तने मोटे, मुलायम एवं हरे रंग के होते हैं। यह ग्रीष्म ऋतु में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है।

पूसा कीर्ति

इसकी पत्तियाँ हरे रंग की काफी बड़ी, ६-८ सेमी० लम्बी और ४-६ सेमी० चौङई होती है तथा डंठल ३-४ सेमी० लम्बा होता है। इसका तना हरा और मुलायम होता है। यह ग्रीष्म ऋतु में उगाने के लिए बहुत उपयुक्त किस्म है।

पूसा लाल चौलाई

इस किस्म को भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा ही विकसित किया गया है। इसकी पत्तियाँ लाल रंग की काफी बङी लगभग ७.५ सेमी० लम्बी और ६.५ सेमी० चौङी होती हैं। इसकी पत्तियों के डंठल की लम्बाई ४ सेमी० होती है। इसका तना भी गहरे लाल रंग का होता है तथा तना और पत्ती का अनुपात १:५ का होता है।

पूसा किरण

यह बरसात के मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है। इसकी पत्तियाँ मुलायम हरे रंग की तथा चौङी होती है और पत्ती के डंठल की लम्बाई ५-६.५ सेमी० होती है।

मोरपंखी

यह बरसात के मौसम में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म होती है। इसकी पत्तियाँ मुलायम हरे तथा लाल रंग की तथा चौङी होती है और पत्ती के डंठल की लम्बाई ५-६.५ सेमी० होती है। इसका फूल बहुत सुंदर होता है और इसे सजावट के रूप में गमलों में भि लगाया जा सकता है।

चित्र दीर्घा

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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चौलाई: Brief Summary ( Hindi )

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चौलाई (अंग्रेज़ी : आमारान्थूस्), पौधों की एक जाति है जो पूरे विश्व में पायी जाती है। अब तक इसकी लगभग ६० प्रजातियां पाई व पहचानी गई हैं, जिनके पुष्प पर्पल एवं लाल से सुनहरे होते हैं। गर्मी और बरसात के मौसम के लिए चौलाई बहुत ही उपयोगी पत्तेदार सब्जी होती है। अधिकांश साग और पत्तेदार सब्जियां शित ऋतु में उगाई जाती हैं, किन्तु चौलाई को गर्मी और वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है। इसे अर्ध-शुष्क वातावरण में भी उगाया जा सकता है पर गर्म वातावरण में अधिक उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए बिना कंकड़-पत्थर वाली मिट्टी सहित रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। इसकी खेती सीमांत भूमियों में भी की जा सकती है।

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