मधुमक्खी कीट वर्ग का प्राणी है। मधुमक्खी से मधु प्राप्त होता है जो अत्यन्त पौष्टिक भोजन है। यह संघ बनाकर रहती हैं। प्रत्येक संघ में एक रानी, कई सौ नर और शेष श्रमिक होते हैं। मधुमक्खियाँ छत्ते बनाकर रहती हैं। इनका यह घोसला (छत्ता) मोम से बनता है। इसके वंश एपिस में 7 जातियां एवं 44 उपजातियां हैं।मधुमक्खी नृत्य के माध्यम से अपने परिवार के सदस्यों को पहचान करती हैं।
जंतु जगत में मधुमक्खी ‘आर्थोपोडा’ संघ का कीट है। विश्व में मधुमक्खी की मुख्य पांच प्रजातियां पाई जाती हैं। जिनमें चार प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। मधुमक्खी की इन प्रजातियों से हमारे यहां के लोग प्राचीन काल से परिचित रहे हैं। इसकी प्रमुख पांच प्रजातियां हैं :
यह आकार में सबसे छोटी और सबसे कम शहद एकत्र करने वाली मधुमक्खी है। शहद के मामले में न सही लेकिन परागण के मामले में इसका योगदान अन्य मधुमक्खियों से कम नहीं है। इसके शहद का स्वाद कुछ खट्टा होता है। आयुर्वेदिक दृष्टि से इसका शहद सर्वोत्तम होता है क्योंकि यह जड़ी बूटियों के नन्हें फूलों, जहां अन्य मधुमक्खियां नहीं पहुंच पाती हैं, से भी पराग एकत्र कर लेती हैं।
इसे देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत में ‘भंवर’ या ‘भौंरेह’ कहते हैं। दक्षिण भारत में इसे ‘सारंग’ तथा राजस्थान में ‘मोम माखी’ कहते हैं। ये ऊंचे वृक्षों की डालियों, ऊंचे मकानों, चट्टानों आदि पर विषाल छत्ता बनाती हैं। छत्ता करीब डेढ़ से पौने दो मीटर तक चौड़ा होता है। इसका आकार अन्य भारतीय मधुमक्खियों से बड़ा होता है। अन्य मधुमक्खियों के मुकाबले यह शहद भी अधिक एकत्र करती हैं। एक छत्ते से एक बार में 30 से 50 किलोग्राम तक शहद मिल जाता है। स्वभाव से यह अत्यंत खतरनाक होती हैं। इसे छेड़ देने पर या किसी पक्षी द्वारा इसमें चोट मार देने पर यह दूर-दूर तक दौड़ाकर मनुष्यों या उसके पालतू पषुओं का पीछा करती हैं। अत्यंत आक्रामक होने के कारण ही यह पाली नहीं जा सकती। जंगलों में प्राप्त शहद इसी मधुमक्खी की होती है।
यह भी भंवर की तरह ही खुले में केवल एक छत्ता बनाती है। लेकिन इसका छत्ता छोटा होता है और डालियों पर लटकता हुआ देखा जा सकता है। इसका छत्ता अधिक ऊंचाई पर नहीं होता। छत्ता करीब 20 सेंटीमीटर लंबा और करीब इतना ही चौड़ा होता है। इससे एक बार में 250 ग्राम से लेकर 500 ग्राम तक शहद प्राप्त हो सकता है।
इसे ग्रामीण क्षेत्रों में मधुमक्खी की प्रजातियां ‘सतकोचवा’ मधुमक्खी कहते हैं। क्योंकि ये दीवारों या पेड़ों के खोखलों में एक के बाद एक करीब सात समानांतर छत्ते बनाती हैं। यह अन्य मधुमक्खियों की अपेक्षा कम आक्रामक होती हैं। इससे एक बार में एक-दो किलोग्राम शहद निकल सकता है। यह पेटियों में पाली जा सकती है। साल भर में इससे 10 से 15 किलोग्राम तक शहद प्राप्त हो सकती है।
इसका विस्तार संपूर्ण यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका तक है। इसकी अनेक प्रजातियां जिनमें एक प्रजाति इटैलियन मधुमक्खी (Apis mellifera lingustica) है। वर्तमान में अपने देश में इसी इटैलियन मधुमक्खी का पालन हो रहा है। सबसे पहले इसे अपने देश में सन् 1962 में हिमाचल प्रदेश में नगरौटा नामक स्थान पर यूरोप से लाकर पाला गया था। इसके पश्चात 1966-67 में लुधियाना (पंजाब) में इसका पालन शुरू हुआ। यहां से फैलते-फैलते अब यह पूरे देश में पहुंच गई है। इसके पूर्व हमारे देश में भारतीय मौन पाली जाती थी। जिसका पालन अब लगभग समाप्त हो चुका है।
परागणकारी जीवों में मधुमक्खी का विषेष महत्त्व है। इस संबंध में अनेक अध्ययन भी हुए हैं। सी.सी. घोष, जो सन् 1919 में इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान में कार्यरत थे, ने मधुमक्खियों की महत्ता के संबंध में कहा था कि यह एक रुपए की शहद व मोम देती है तो दस रुपए की कीमत के बराबर उत्पादन बढ़ा देती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में कुछ फसलों पर परागण संबंधी परीक्षण किए गए। सौंफ में देखा गया कि जिन फूलों का मधुमक्खी द्वारा परागीकरण होने दिया गया उनमें 85 प्रतिशत बीज बने। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागित करने से रोका गया उनमें मात्र 6.1 प्रतिशत बीज ही बने थे। यानी मधुमक्खी, सौंफ के उत्पादन को करीब 15 गुना बढ़ा देती है। बरसीम में तो बीज उत्पादन की यह बढ़ोत्तरी 112 गुना तथा उनके भार में 179 गुना अधिक देखी गई। सरसों की परपरागणी 'पूसा कल्याणी' जाति तो पूर्णतया मधुमक्खी के परागीकरण पर ही निर्भर है। फसल के जिन फूलों में मधुमक्खी ने परागीकृत किया उनके फूलों से औसतन 82 प्रतिशत फली बनी तथा एक फली में औसतन 14 बीज और बीज का औसत भार 3 मिलिग्राम पाया गया। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागण से रोका गया उनमें सिर्फ 5 प्रतिशत फलियां ही बनीं। एक फली में औसत एक बीज बना जिसका भार एक मिलिग्राम से भी कम पाया गया। इसी तरह तिलहन की स्वपरागणी किस्मों में उत्पादन 25-30 प्रतिशत अधिक पाया गया। लीची, गोभी, इलायची, प्याज, कपास एवं कई फलों पर किए गए प्रयोगों में ऐसे परिणाम पाए गए।
एक साथ रहने वाली सभी मधुमक्खियां एक मौनवंश (कॉलोनी) कहलाती हैं। एक मौनवंश में तीन तरह की मधुमक्खियां होती हैं : (1) रानी, (2) नर तथा (3) कमेरी।
एक मौनवंश में हजारों मधुमक्खियां होती हैं। इनमें रानी (क्वीन) केवल एक होती है। यही वास्तव में पूर्ण विकसित मादा होती है। पूरे मौनवंश में अंडे देने का काम अकेली रानी मधुमक्खी ही करती है। यह आकार में अन्य मधुमक्खियों से बड़ी और चमकीली होती है जिससे इसे झुंड में आसानी से पहचाना जा सकता है।
मौसम और प्रजनन काल के अनुसार नर मधुमक्खी (ड्रोन) की संख्या घटती-बढ़ती रहती है। प्रजनन काल में एक मौनवंष में ये ढाई-तीन सौ तक हो जाते हैं जबकि विपरीत परिस्थितियों में इनकी संख्या शून्य तक हो जाती है। इनका काम केवल रानी मधुमक्खी का गर्भाधान करना है। गर्भाधान के लिए यद्यपि कई नर प्रयास करते हैं जिनमें एक ही सफल हो पाता है।
किसी मौनवंश में सबसे महत्त्वपूर्ण मधुमक्खियां कमेरी (वर्कर) ही होती हैं। ये फूलों से रस ले आकर शहद तो बनाती ही हैं साथ-साथ अंडे-बच्चों की देखभाल और छत्ते के निर्माण का कार्य भी करती हैं।
मधुमक्खी कीट वर्ग का प्राणी है। मधुमक्खी से मधु प्राप्त होता है जो अत्यन्त पौष्टिक भोजन है। यह संघ बनाकर रहती हैं। प्रत्येक संघ में एक रानी, कई सौ नर और शेष श्रमिक होते हैं। मधुमक्खियाँ छत्ते बनाकर रहती हैं। इनका यह घोसला (छत्ता) मोम से बनता है। इसके वंश एपिस में 7 जातियां एवं 44 उपजातियां हैं।मधुमक्खी नृत्य के माध्यम से अपने परिवार के सदस्यों को पहचान करती हैं।