भटकटैया या कंटकारी (वैज्ञानिक नाम : Solanum xanthocarpum) का फैलने वाला, बहुवर्षायु क्षुप है। इसके पत्ते लम्बे काँटो से युक्त हरे होते है ; पुष्प नीले रंग के होते है ; फल क्च्चे हरित वर्ण के और पकने पर पीले रंग के हो जाते है। बीज छोटे और चिकने होते है। यह पश्चिमोत्तर भारत मे शुष्कप्राय स्थानों पर होती है। यह एक औषधीय पादप है। [1]भटकटैया के कुछ भाग (जैसे, फल) विषैले होते हैं।[2]
कंटकारी एक अत्यंत परिप्रसरी क्षुप हैं जो भारवतर्ष में प्राय: सर्वत्र रास्तों के किनारे तथा परती भूमि में पाया जाता है। लोक में इसके लिए भटकटैया, कटेरी, रेंगनी अथवा रिंगिणी; संस्कृत साहित्य में कंटकारी, निदग्धिका, क्षुद्रा तथा व्याघ्री आदि; और वैज्ञानिक पद्धति में, सोलेनेसी कुल के अंतर्गत, सोलेनम ज़ैंथोकार्पम (Solanum xanthocarpum) नाम दिए गए हैं।
इसका लगभग र्स्वागकंटकमय होने के कारण यह दु:स्पर्श होता है। काँटों से युक्त होते हैं। पत्तियाँ प्राय: पक्षवत्, खंडित और पत्रखंड पुनः खंडित या दंतुर (दाँतीदार) होते हैं। पुष्प जामुनी वर्ण के, फल गोल, व्यास में आध से एक इंच के, श्वेत रेखांकित, हरे, पकने पर पील और कभी-कभी श्वेत भी होते हैं। यह लक्ष्मणा नामक संप्रति अनिश्चित वनौषधि का स्थानापन्न माना है। आयुर्वेदीय चिकित्सा में कटेरी के मूल, फल तथा पंचाग का व्यवहार होता है। प्रसिद्ध औषधिगण 'दशमूल' और उसमें भी 'लंघुपंचमूल' का यह एक अंग है। स्वेदजनक, ज्वरघ्न, कफ-वात-नाशक तथा शोथहर आदि गुणों के कारण आयुर्वेदिक चिकित्साके कासश्वास, प्रतिश्याय तथा ज्वरादि में विभिन्न रूपों में इसका प्रचुर उपयोग किया जाता है। बीजों में वेदनास्थापन का गुण होने से दंतशूल तथा अर्श की शोथयुक्त वेदना में इनका धुआँ दिया जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार भटकटैया स्वाद में कटु, तिक्त, गुण में हलकी, तीक्ष्ण, प्रकृति में गर्म, विपाक में कटु, कफ निस्सारक, पाचक, अग्निवर्द्धक, वातशामक होती है। यह दमा, खांसी, ज्वर, कृमि, दांत दर्द, सिर दर्द, मूत्राशय की पथरी नपुंसकता, नकसीर, मिर्गी, उच्च रक्तचाप में गुणकारी है।
यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार भटकटैया दूसरे दर्जे की गर्म और खुश्क होती है। यह पित्त विकार, कफ, खांसी, दमा, पेट दर्द, मंदाग्नि, पेट के अफारे में गुणकारी है।
भटकटैया की रासायनिक संरचना का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इसके पंचांग में सोले कार्पिडिन एल्केलाइड पोटेशियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोराइड अल्प मात्रा में पाए जाते हैं। इसका काढ़ा सुजाक में लाभप्रद होता है।[3]
भटकटैया का पूरा पौधा फूल, फल, पत्ती, तना, जड़-पंचाङ्ग सहित उखाड़कर लायें। उसे ठीक से धुलने के बाद। जड़ सहित सम्पूर्ण पौधे को स्टील के बड़े से बर्तन में धीमी आँच पर पकने के लिए रख दें। यह मन्द आँच पर दो-तीन घंटे पकता रहेगा। उसके बाद जब पानी तिहाई शेष बचे तब उतारकर छान लें। राज्य फिर काँच की बोतलों में भरकर रख दें।
इसका तुरंत उपयोग कर सकते हैं। इसे संग्रहीत भी कर सकते हैं आवश्यकता पड़ने पर इसे पुनः एक बार उबालकर ठंडा करके रोगी को दिया जा सकता है। इससे पुरानी से पुरानी खाँसी तो ठीक होगी ही। इसके साथ ही सारा कफ भी धीरे-धीरे बाहर आ जायेगा।[4]
तीन से चार बड़े चम्मच समान मात्रा में जल के साथ इसका सेवन करना चाहिए।
यदि बहुत पहले बनाकर बोतल में बंद रखा है तो उपयोग से पहले एकबार उबालकर ठंडा अवश्य करना चाहिए ताकि यदि कुछ विकार आया होगा तो दूर हो जाय। यह काढ़ा रोगी को 3-6दिनों तक दिया जा सकता है। दिन में दो बार। उसको एक दो खुराक से ही आराम होने लगेगा।
भटकटैया या कंटकारी (वैज्ञानिक नाम : Solanum xanthocarpum) का फैलने वाला, बहुवर्षायु क्षुप है। इसके पत्ते लम्बे काँटो से युक्त हरे होते है ; पुष्प नीले रंग के होते है ; फल क्च्चे हरित वर्ण के और पकने पर पीले रंग के हो जाते है। बीज छोटे और चिकने होते है। यह पश्चिमोत्तर भारत मे शुष्कप्राय स्थानों पर होती है। यह एक औषधीय पादप है। भटकटैया के कुछ भाग (जैसे, फल) विषैले होते हैं।