सनई (Sunn या sunn hemp; वैज्ञानिक नाम : Crotalaria juncea) एक पौधा है जिसका उपयोग हरी खाद बनाने में किया जाता है। इसके फूलों की शब्जी बनती है। इसके तने को पानी में सड़ाने के बाद इसके ऊपर लगा रेशा से रस्सी बनायी जाती है।और यह रस्सी बहुत ही टिकाऊ होती है।
भारत के सभी भागों में इसे उगाया जाता है लेकिन, उ०प्र० एवं मध्य प्रदेश में इसे प्रमुखता से उगाते हैं उत्तरी राज्यों में इसे खरीफ में उगाते हैं जबकि दक्षिणी राज्यों में इसे रबी में भी उगाते हैं इसकी खेती के लिए कम से कम ४० सेमी. वार्षिक वर्षा पर्याप्त रहती है, जिसका वितरण ठीक हो, जो लगभग ५० दिन में गिरे।
उचित जल- निकास वाली अल्यूवियल मृदा उचित रहती है, जो बलुई दोमट से दोमट हो चूँकि यह दलहनी (legume) फसल है, लेकिन इसकी जङों में गाँठो (nodules) का निर्माण भूमि में उपस्थित कैल्शियम (Ca) एवं फास्फोरस (P) की मात्रा पर निर्भर करता है अत: कम पी-एच (pH) वाली मृदायें उचित नहीं होती है, लेकिन अम्लीय मृदाओं में चूना प्रयोग करके उन्हें सुधारा जा सकता है रेशा तथा हरी खाद दोनों के लिये खेत की फसल के लिये, सुविधाओं के अनुसार, एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व २-३ जुताई देशी हल से करते हैं अन्तिम जुताई के बाद खेत को समतल एवं भुरभुरा बनाने के लिए पाटा चलाया जाता है।
सनई की संस्तुत किस्में एवं उनकी विशेषतायें-
कानपुर-१२ (K-12)- अधिक उपज, रेशा अच्छी गुणवत्ता का, उकठा प्रतिरोधी, उपज १४ कुं०प्रति है०
M-18- शीघ्र परिपक्वता, हल्की भूमि हेतु उपयुक्त, कम वर्षा चाहिए
M-35- तना छेदक प्रतिरोधी, शेष M-18 की तरह
BE-1(नालन्दा सनई)- अच्छी उपज एवं रेशों का गुण भी अच्छा
बैल्लारी- अधिक उपज
D-IX - उकठा प्रतिरोधी
ST-55- K-12 से अधिक उपज
बुवाई- सनई को खरीफ फसल के रूप में रबी में गेहूँ अथवा तिलहनों - सरसों आदि से पूर्व उगाते हैं इसे प्राय: छिटकवाँ विधि से बोते हैं यदि इसे लाइन में बोया जाय तो उचित होगा छिटकवाँ विधि में बीजदर लगभग २५-३० किग्रा०/ हेक्टेयर पर्याप्त रहती है जबकि लाइनों में बुवाई करने पर मात्र ५ किग्रा०/ हेक्टेयर बीज चाहिए कतार से कतार कतार ३० सेमी तथा पौधा से पौधा ५ से ७ सेमी की दूरी पर हो खाद हेतु इसके बीज की मात्रा ५०-६० किग्रा०/ हेक्टेयर छिटकवाँ विधि में रखते हैं
बुवाई का समय- वर्षा से पूर्व जुलाई में प्राय: इसे बोते हैं एक वर्ष से पुराना बीज न हो, क्योकि बीजों की अंकुरण क्षमता ९० प्रतिशत होती है।
चूँकि यह एक दलहनी फसल है और स्वयं जङें (ग्रथियों में जीवाणु होने के कारण) वायुमण्डल से नत्रजन एकत्रित कर लेती हैं, अत: नत्रजन देने की जरूरत नहीं पङती है फाँस्फोरस एवं पोटाश तत्वों की मत्रायें लगभग २०-२० क्रिग्रा० (P व K) प्रति हेक्टेयर दी जाय सूक्ष्म-तत्व बोरोन (Boron) एवं माँलिब्डेनम (Mo) लाभदायक है, लेकिन इन्हें प्राय: नहीं दिया जाता है क्योंकि इन तत्वों की मात्रा भूमि में पाई जाती है कैल्सियम की अधिक मात्रा में जरूरत पङती है उ० प्र० के प्रचलित क्षेत्रों - बनारस, प्रतापगढ, सुल्तानपुर, आजमगढ, देवरिया में चूना नहीं दिया जाता खेत में खाद डालने के बाद इसकी बुवाई कर दी जाती है भूमि में रेक चला कर बीजों को मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं। सिंचाई:
अप्रैल - मई में बोई गई फसल में वर्षा आरम्भ होने से पहले १-२ सिंचाई करते हैं दाने व रेशे वाली फसलों के लिये वर्षा अगर शीघ्र समाप्त हो जाय या बीच में सूखा पङ जाये तो आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देते हैं। खरपतवार:
प्राय: निकाई नहीं की जाती है चूँकि सनई में आइपोमिया स्पीशीज (Ipomea sp.) के बीज मिल जाते हैं अत: एक निकाई आवश्यक है।
१.सनई का मोथ-यह पत्तियों को खाता है इसके ऊसर लाल, काले और सफेद निशान होते हैं यह कैप्सूल में छेद करके अन्दर घुस जाता है मौथ के पंखों पर सफेद, लाल व काले चिन्ह मिलते हैं पत्तियों और तनों पर अपने अण्डे देता है इसकी सूँडी फसल को क्षति पहुँचाती है इससे बचने के लिये अण्डों और सूँडियों को चुनकर बाहर डाल कर नष्ट कर देना चाहिये या ५ प्रतिशत बी० एच० सी० धूल १२-२० किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से बुरकनी चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान (३५ ई० सी०) के घोल का छिङकाव करें
२. तना छेदक-यह कीट पौधे के उपरोक्त भाग में छेद करके पौधे को क्षति पहुंचाता है इसकी रोकथाम के लिये ५ प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल लाभप्रद रहती है या ०.०४ प्रतिशत डायजिनान के घोल का छिङकाव करें
३. लाल रोयेंदार सूँडी- यह लाल बालों वाली सूँडी पत्तियों को खाती है यह सूँडी अंकुरित होते हुये बीजांकुरों को भी खा जाती है और भूमि के अन्दर ही इसकी प्यूपा अवस्था पूरी होती है इसके मौथ के पंखो पर काले धब्बे होते हैं इसके अण्डे भी भूमि में ही पाये जाते हैं इसके रोकथाम के लिये मौथ को रोशनी द्वारा आकर्षित करके, पकङ कर नष्ट कर देना चाहिये, १० प्रतिशत बी० एच० सी० की धूल २५-३० किग्रा० प्रति है० की दर से बुरकना चाहिये या ०.१५ प्रतिशत इन्डोसल्फान के घोल का छिङकाव करें।
(१) चूर्णिल आसिता - यह फफूँद से लगने वाला रोग है इसके द्वारा बहुत हानि होती है; रोगी पौधों को उखाङकर जला दें, घुलनशील गन्धक जैसे इलोसाल या सल्फैक्स की ३ कि.ग्रा. मात्रा को १००० ली० पानी में घोलकर प्रति हे० की दर से छिङकाव करें या फसल पर ०.०६ प्रतिशत कैराथेन (६० ग्राम दवा १०० ग्राम ली० पानी में) नामक दवा का छिङकाव करें
(२) गेरूई या रतुआ-यह फफूँद से लगता है पौधे के सभी वायुवीय भागों पर फफोले दिखाई देते हैं इनका रंग कुछ पीला - भूरा होता है धब्बे बिखरे रहते हैं व बाद में काले - भूरे हो जाते हैं इसकी रोकथाम के लिये ०.२ प्रतिशत डाइथेन एम-४५ के घोल का छिङकाव करें
(३) मोजेक- यह विषाणु द्वारा लगने वाली बीमारी है पत्तियाँ इससे प्रभावित होती हैं और इनमें मोङ आ जाते हैं तथा कुरूप हो जाती हैं शारीरिक क्रिया कम हो जाती है फसल की पैदावार घट जाती है इसकी रोकथाम भी अभी तक अज्ञात है वैसे फसलों के हरे-फेर कर बोने से रोग को कुछ सीमा तक रोका जा सकता है
(४) मुरझान या उकठा- यह फफूँद द्वारा लगता है पत्तियाँ पीली पङ जाती हैं यह रोग अक्टूबर में दिखाई देता है और पूरा पौधा मुरझा जाता है तथा बाद में नष्ट हो जाता है इसे रोकने के लिये प्रतिरोधी किस्मों (के १२ व के १२ पीली) को उगाना चाहिये, फसल -चक्र अपनाने चाहियें और खेत की स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिये बीज को बोने से पहले एग्रोसन जी० एन० से उपचारित कर लेना चाहिये
(५) जीवाणु पत्ती या पर्ण दाग- यह बीमारी जीवाणु से लगती है इसके द्वारा पत्तियो पर चकत्ते बने जाते हैं यह बहुत कम प्रभाव दिखाती है और कम ही क्षति इसके द्वारा होती है खेत से उचित जल निकास का प्रबन्ध करें व उचित फसल - चक्र अपनायें।
(अ) हरी खाद के लिये कटाई-फसल बोने के ५० - ६० दिन बाद फसल खेत में पलट दी जाती है अप्रैल -मई में बोई गई फसल जून- जौलाई में खेत में पलट देते हैं व जून -जौलाई में बोई गई फसल अगस्त - सितम्बर में खेत में पलट देते है
(ब) रेशे वाली फसल-बोने के १० -१२ सप्ताह बाद रेशे के लिये फसल की कटाई करते हैं पहले कटाई करने पर रेशा कच्चा प्राप्त होता है तथा उपज में भारी कमी होती है व बाद में कटाई करने पर रेशा अच्छे गुणों वाला प्राप्त नहीं होता सितम्बर में इस फसल की कटाई हो जाती है
(स) बीज या दाने वाली फसल - फलियों में बीज जब कठोर व काला हो जाये तभी फसल की कटाई करने पर रेशा दाने के लिये करते हैं इस अवस्था पर फलियाँ सूख जाती हैं व बीज अपने वृन्त से अलग हो जाता है हंसिया से कटाई करके, फसल से सूखे डन्डों की सहायता से बीज अलग कर लेते हैं सूखे तने को पानी में गला कर निम्न गुणों का रेशा भी प्राप्त हो जाता है।
हरी खाद की फसल से २००-३०० कुन्तल प्रति है० तक जीवांश प्राप्त हो जाता है रेशे वाली फसलों से ८-१२ कु० तक रेशे प्रति है० दाने वाली फसल से ८-१० कुन्तल दाना प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाता है।
जूट की भाँति इसके सङाने की विधि है प्राय: पोखर, तालाबों, जहाँ वर्षा का पानी कुछ दिनों तक भर जाय, ऐसी जगह इसके तनों का बंडल बाँधकर पानी में गाढ देते हैं, पहले खङा करके पानी में १-२ दिन छोङ देते हैं फिर उन्हें पानी में डालकर मिट्टी से ढक देते हैं लगभग ५-७ दिन में सङाव क्रिया पूर्ण हो जाती है जूट की तुलना में सनई से रेशा निकालना कठिन कार्य है पीटना एवं झटक विधि उपयुक्त नहीं रहती क्योंकि टूटे तने पर रेशा चिपका रहता है अत: इसके प्रत्येक तने से अलग - अलग रेशा निकालते हैं, जो हाथ से निकाला जाता है रेशा को बाद में पानी में धोकर धूप में सूखा देते हैं यदि सङाव अच्छा नहीं हुआ है, तो रेशा मोटा (भद्दा) एवं हरा तो होगा लेकिन उसकी ताकत में कमी नहीं आवेगी पानी में कम धुलाई से गोंद सा रेशे पर चिपका रहेगा
प्राय: १०० दानों का वजन ३.४ से ६ ग्राम होता है जो किस्म से किस्म भिन्न होता है इसके बीज में प्रोटीन अधिक होती है अत: चिपकाने के काम में आती है वैसे बीज उत्पादन अभी कोई संगठित रूप नहीं हो रहा हैं, लेकिन कृषक पुराने तरीकों से ही बाजरा, ज्वार, रागी, धान की फसलों के चारों ओर कूंड लगाकर बीज हेतु सनई उगाते हैं बीज की उपज २० कुं० प्रति है० तक पहुँच जाती है हरी खाद हेतु सनई: सनई को हरी खाद हेतु उगाने के लिए बीज लगभग ६० किग्रा० प्रति हैक्टर प्रयोग होता है, जो जुलाई में बोते हैं और अगस्त तक लगभग ४५ दिन की फसल को खेत में पलट देते हैं, ताकि एक माह में फसल वर्षा के पानी से सङ जाय प्राय: ६०-८० किग्रा० नत्रजन प्रति हेक्टेयर भूमि में (P व K के अलावा) प्राप्त हो जाती है जो हरे तने लगभग २० टन प्रति हेक्टेयर भूमि में पलटने से मिल जाती है ऊसर भूमियों को सुधारने के लिए हरी खाद प्रयोग करते हैं।
सनई (Sunn या sunn hemp; वैज्ञानिक नाम : Crotalaria juncea) एक पौधा है जिसका उपयोग हरी खाद बनाने में किया जाता है। इसके फूलों की शब्जी बनती है। इसके तने को पानी में सड़ाने के बाद इसके ऊपर लगा रेशा से रस्सी बनायी जाती है।और यह रस्सी बहुत ही टिकाऊ होती है।
ਸਣ [1] ਬਨਸਪਤੀ ਵਿਗਿਆਨਕ ਨਾਮ Crotalaria juncea ਇੱਕ ਤਪਤ ਖੰਡੀ ਏਸ਼ੀਆ ਦਾ legume ਪ੍ਰ੍ਵਾਰ ਦਾ ਪੌਧਾ ਹੈ।ਇਸ ਨੂੰ ਹਰੀ ਖਾਧ ਤੇ ਪਸ਼ੂਆਂ ਦੀ ਖੁਰਾਕ ਦਾ ਵੱਡਾ ਸ੍ਰੋਤ ਜਾਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਵਾਣ ਬਾਇਓ ਬਾਲਣ ਦੇ ਕੰਮ ਵੀ ਆਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਦਾ ਰੇਸ਼ਾ ਇਸ ਦੇ ਤਨੇ ਦੇ ਛਿਲਕੇ ਨੂੰ ਪਾਣੀ ਵਿੱਚ ਡਬੋ ਕੇ ਗਾਲ ਕੇ ਕਢਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਦਾ ਵਾਣ ਵੱਟ ਕੇ ਰੱਸੇ ਆਦਿ ਬਣਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਸਣ ਸਾਉਣੀ ਦੀ ਮਹੱਤਵ ਪੂਰਣ ਫਸਲ ਹੈ।ਅੱਜਕਲ ਪੰਜਾਬ ਵਿੱਚ ਝੋਨੇ ਦੇ ਬਦਲ ਵਿੱਚ ਇਸ ਦੀ ਬਿਜਾਈ ਦੀ ਬਹੁਤ ਵਕਾਲਤ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। [2]
Crotalaria juncea, known as brown hemp, Indian hemp, Madras hemp, or sunn hemp,[2][3] is a tropical Asian plant of the legume family (Fabaceae). It is generally considered to have originated in India.[2]
It is now widely grown throughout the tropics and subtropics[2] as a source of green manure, fodder and lignified fiber obtained from its stem. Sunn hemp is also being looked at as a possible bio-fuel.[4] It can be an invasive weed and has been listed as a noxious weed in some jurisdictions.[3]
It bears yellow flowers and elongate, alternate leaves.[5]
Annual, c. 100–1000 cm tall.
Many ascending branches, pubescent.
Leaf simple, c. 2.5v10.5 cm long, c. 6–20 mm broad, linear or oblong, obtuse or subacute, apiculate, pubescent on both sides, hairs appressed, silky.
Petiole c. 1.2–2.5 mm long; stipules almost absent.
Inflorescence an erect terminal and lateral raceme, up to 30 cm long, 12–20-flowered. Pedicel c. 3–7 mm long. Bract minute; bracteoles 2, below the calyx. Calyx c. 1.8–2.0 cm long, pubescent, teeth linear-lanceolate. Corolla bright yellow. Vexillum ovate-oblong, slightly exserted.
Fruit c. 2.5–3.2 cm long, sessile, pubescent, 10–15-seeded. Fl.Per. May–September.
Crotalaria juncea has many practical applications in the modern world. First, it is a source of natural fibre. It is used for cordage, fishing nets, ropes, and more.[6] It is particularly beneficial because of its resistance to root-knot nematodes and is also a soil improving crop via nitrogen fixation. The Sunnhemp Research Station of Uttar Pradesh further researched Crotalaria juncea’s genotypic impact on fibre yield. Four different genotypes of Crotalaria juncea were observed for three years to determine which genotype would yield in a high fibre yield. Important data that was collected across the plant genotypes include height (cm), basal diameter (mm), green biomass weight (q/ha), fibre weight (q/ha), and stick weight (q/ha). Out of the four genotypes, namely SUIN-029, SUIN-080, SUIN-037, and SUIN-043, SUIN-029 was superior in resulting in a high fibre yield.[6] This genotype can even be used as a template for future breeding.[6]
Another practical application of Crotalaria juncea includes fuel. Crotalaria juncea holds a relatively high fuel value. In fact, a process optimization method for the extraction of oil from Crotalaria juncea is being researched in order to utilize the fuel value in Crotalaria juncea.[7] The current method of oil extraction is known as the soxhlet based extraction which has an oil yield of 13% in four hours at 37 degrees Celsius. However, a novel three-phase partitioning based extraction shows an oil yield of 37% in two hours at 37 degrees Celsius.[7] Furthermore, the optimization factors that were identified include ammonium sulphate and butanol, pH, and temperature, and these factors impact the oil yield.[7]
Furthermore, Crotalaria juncea has applications in the agricultural field since it impacts common food production. Crotalaria juncea is identified as a plant that is an important summer cover crop in southeastern United States. The allelopathic effects of Crotalaria juncea on weeds, vegetable crops, and cover crops were observed via greenhouse and growth chamber experiments.[8] Crotalaria juncea, reduced both the germination and seedlings of various crop species (bell pepper, tomato, onion, and others). The allelochemical activity in Crotalaria juncea was in the leaves and remained active for 16 days after harvest.[8] Furthermore, Crotalaria juncea’s allelochemical effect may have practical applications for weed management.[8]
Similarly, Crotalaria juncea can be used to improve nutrient patterns in agricultural plants. For instance, soil fertility in Paraiba, Brazil is generally low. To rectify this, animal manure is often used to supply agricultural crops with nutrients.[9] However, researchers in Brazil hypothesized that planting and incorporating Crotalaria juncea with animal manure could enhance the nutrient mineralization pattern for agricultural crops.[9] Field and greenhouse experiments were used to test this hypothesis. After measuring the amounts of Nitrogen, Phosphorus, and Potassium in the soils, it was discovered that Crotalaria juncea along with only half the usual dose of goat manure produced the best results.[9] This is because soils that consisted of this composition avoided immobilization of nitrogen while increasing the levels of phosphorus and potassium within the soil.[9] In other words, Crotalaria juncea was able to improve the overall nutrient mineralization pattern for agricultural crops.
Additionally, other research also observed Crotalaria juncea’s potential in being used as an organic compost. Researchers in Brazil looked into the best composition of organic compost using various combinations of Crotalaria juncea and Napier grass.[10] The objective was to find the mixture between Crotalaria juncea and Napier grass that would yield the highest vegetable seedling production. More specifically, the vegetable seedling production of lettuce, beetroot, and tomatoes was measured by observing the shoot height, fresh mass production in shoots and dry matter, and leaf number.[10] The various compounds that were observed include, 100% Crotalaria juncea, 66% Crotalaria juncea with 33% Napier, 33% Crotalaria juncea with 66% Napier, 100% of Napier, 33% Crotalaria juncea with 66% Napier where 5% of the mass is cattle manure, Crotalaria juncea 33% with 66% Napier which includes 100 liters of 5% dilute Agrobio (biofertilizer), and finally, 100% Napier which also includes 100 liters of 5% dilute Abrobio.[10] The compost with 66% Crotalaria juncea and 33% Napier grass was superior to other combinations since this particular combination yielded the greatest production of lettuce, beet, and tomato seedlings.[10]
Although reported to contain antinutritional factors such as alkaloids, sunn hemp is grown for fodder to feed cattle, mainly in India.[2]
There are several methods that have been shown to be effective as in decontamination and remediation of contaminated soils.[11] A highly applicable method of soil remediation known as phytoremediation has been specifically shown to be effective as when used in soils contaminated with heavy metals. Phytoremediation has been demonstrated to be effective as for correcting Crotalaria juncea found in soils contaminated with herbicides. The method of phytoremediation functions effectively in decontamination and remediation by using microorganisms and plants to remove, transfer, stabilize, or destroy harmful elements.[12] Crotalaria juncea found in soils contaminated with herbicides revealed high phytoremediation capacity. In addition, phytoremediation is effective in removal of copper, which has been identified as a metal strongly present in the soil of Crotalaria juncea.
Cultivated soil high in copper levels has proven to be effective in increasing the growth of Crotalaria juncea. However, an excess of copper in plant tissues has demonstrated the potential of affecting both physiological and biochemical processes including photosynthesis.[13] Toxicity resulting from excessive copper has also resulted in altered effects that have been found to affect the cellular and molecular levels of the plant.[14] Excessive copper levels can ultimately result in depletion of necessary nutrients. This nutrient deficiency occurs when the interactions of copper with sulfhydryl groups of enzymes and proteins inhibit enzyme activity or result in changes in the structure or replacement of key elements.[14] The structures of chloroplasts have been affected by the excess of copper, which ultimately resulted in decreased pigmentation levels of Crotalaria juncea.[15] There are, however, studies that have indicated that Crotalaria juncea has a high tolerance to copper concentrations in the soil and root systems which are beneficial traits for phytostabilization programs.[16]
Studies have also shown that phosphate and Rhizophagus clarus (an arbuscular mycorrhizal fungus) are capable in altering the physiological responses of Crotalaria juncea that is found in soil high in copper levels.[17] Phosphate has been demonstrated to be effective in reducing the level of toxicity in Crotalaria juncea, resulting in promotion of plant growth. When the application of phosphate is coupled with the inoculation of Rhizophagus clarus, the result is a synergistic effect that allows copper toxicity levels to be reduced through various mechanisms.[17] This ultimately allows for the increased growth of Crotalaria juncea in spite of having been cultivated in high levels of copper.
There have been other effective approaches in decreasing the levels of copper in Crotalaria juncea with the use of arbuscular mycorrhizal fungi (AMF).[17] Phosphate uptake is significantly improved in the presence of AMF, which functions to effectively reduce the amount of available heavy metals.[18] The symbioses with AMF and soil supplementation of phosphate allows for the promotion growth of Crotalaria juncea. Despite the high levels of copper in the soil of Crotalaria juncea, mechanisms have been determined which can reverse the toxic effects of copper and allow for growth of the plant.
Crotalaria juncea, known as brown hemp, Indian hemp, Madras hemp, or sunn hemp, is a tropical Asian plant of the legume family (Fabaceae). It is generally considered to have originated in India.
It is now widely grown throughout the tropics and subtropics as a source of green manure, fodder and lignified fiber obtained from its stem. Sunn hemp is also being looked at as a possible bio-fuel. It can be an invasive weed and has been listed as a noxious weed in some jurisdictions.
It bears yellow flowers and elongate, alternate leaves.
Crotalaria juncea est une espèce de plante à fleurs de la famille des Fabaceae, plus communément appelée Chanvre indien, Chanvre brun, Chanvre sunn ou encore Chanvre de Mandras[2]. C'est une plante tropicale asiatique.
Le chanvre peut être utilisé comme engrais vert (grâce à son statut de légumineuse), biocarburant, fourrage et comme fibres pour faire des cordages (à partir de la tige), dans une région tropicale ou subtropicale. L'espèce peut résister à la sécheresse et se plaît dans les régions chaudes[3]. Ses feuilles sont allongées et alternées, et la fleur est de couleur jaune.
L'espèce Crotalaria juncea a été décrite en 1753 par le naturaliste suédois Carl von Linné (1707-1778) dans son ouvrage Species Plantarum[4].
C'est une plante herbacée annuelle pouvant mesurer entre 1 et 3,5 m de hauteur. Elle est lâchement ramifiée avec des tiges assez côtelées comportant des poils couchés. Elle possède des feuilles alternées linéaires (étroites et allongées), au bord entier et à la nervure pennée parallèle (opposées par paires). La feuille est rattachée à la plante par une pétiole avec des stipules émincées mesurant entre 1 et 2 mm de longueur. On peut dire qu'ils sont presque absents.
La fleur a une structure classique de la famille des fabacées avec une symétrie bilatérale, un étendard (mesurant 1,5 à 2 cm), un carène et deux ailes un peu plus courtes que celui-ci. C'est une structure des pétales qui est assez commune[5]. Elle est zygomorphe, bisexuée et de couleur jaune.
La grappe est dressée et peut atteindre 30 cm de longueur. Elle peut contenir de six à douze graines brun foncé ou noires[3].
Crotalaria juncea, étant une légumineuse, est capable de fixer l'azote atmosphérique dans les nodosités de ses racines. Elle va par la suite le relâcher dans le sol, et donc enrichir celui-ci avec ce que l'on appelle un engrais vert (sous forme d'azote). Grâce à cela, les différentes conditions du sol vont être améliorées, notamment au niveau du contrôle de l'érosion, la lutte contre les nématodes ou encore la suppression de mauvaises herbes[6].
Le chanvre, grâce à ses propriétés physiologiques, va pouvoir réaliser un des mécanismes de dépollution du sol : la phytoremédiation. En effet, la phytoremédiation se compose d'un ensemble de mécanismes utilisés par les plantes ou les arbres afin de dépolluer les sols de manière très écologique. Dans le cas suivant, Crotolaria juncea est capable de dépolluer un sol riche en cuivre. L'avantage pour elle est, par exemple, d'éviter d'avoir de la concurrence dans son espace vital (car la contamination va empêcher la croissance de celle-ci), et va aussi la protéger des prédateurs (car consommer cette plante sera toxique pour eux). Le transport de métaux lourds dans la plante se fait à l'aide de canaux ioniques transmembranaires où sont impliqués certaines protéines[7].
C'est une plante qui est très utilisée pour faire du cordage. En effet, cela peut aboutir à la création de sacs, de filets de pêches, de ficelles, de toiles, de sandales ou encore de semelles de chaussures.
Son chanvre permet également de confectionner des tapis, de la literie et des sangles.
Crotalaria juncea est une espèce de plante à fleurs de la famille des Fabaceae, plus communément appelée Chanvre indien, Chanvre brun, Chanvre sunn ou encore Chanvre de Mandras. C'est une plante tropicale asiatique.
Le chanvre peut être utilisé comme engrais vert (grâce à son statut de légumineuse), biocarburant, fourrage et comme fibres pour faire des cordages (à partir de la tige), dans une région tropicale ou subtropicale. L'espèce peut résister à la sécheresse et se plaît dans les régions chaudes. Ses feuilles sont allongées et alternées, et la fleur est de couleur jaune.
Orok-orok (Crotalaria juncea), dalam perdagangan internasional dikenal sebagai sun hemp atau sunn hemp, adalah tumbuhan Asia tropis anggota tanaman polong-polongan (Fabaceae/Leguminosae) yang biasa digunakan sebagai tanaman penutup tanah (cover crop) pada tanah-tanah yang belum digarap (bera). Selain itu, orok-orok biasa juga digunakan sebagai pupuk hijau serta hijauan ternak. Sebagaimana banyak legum lainnya, orok-orok bersimbiosis dengan bakteri bintil akar dan mampu mengikat nitrogen bebas di udara dan merilis kembali ke tanah dalam bentuk hara yang tersedia bagi tumbuhan[1].
Orok-orok juga berpotensi sebagai bahan bakar ramah lingkungan (bio-fuel)[2].
Orok-orok (Crotalaria juncea), dalam perdagangan internasional dikenal sebagai sun hemp atau sunn hemp, adalah tumbuhan Asia tropis anggota tanaman polong-polongan (Fabaceae/Leguminosae) yang biasa digunakan sebagai tanaman penutup tanah (cover crop) pada tanah-tanah yang belum digarap (bera). Selain itu, orok-orok biasa juga digunakan sebagai pupuk hijau serta hijauan ternak. Sebagaimana banyak legum lainnya, orok-orok bersimbiosis dengan bakteri bintil akar dan mampu mengikat nitrogen bebas di udara dan merilis kembali ke tanah dalam bentuk hara yang tersedia bagi tumbuhan.
Orok-orok juga berpotensi sebagai bahan bakar ramah lingkungan (bio-fuel).
Lục lạc sợi (danh pháp: Crotalaria juncea) là loài thực vật của vùng châu Á nhiệt đới, thuộc họ (Fabaceae).
Lục lạc sợi là nguồn phân xanh, chất xơ và có thể làm nhiên liệu sinh học.
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Lục lạc sợi (danh pháp: Crotalaria juncea) là loài thực vật của vùng châu Á nhiệt đới, thuộc họ (Fabaceae).
Lục lạc sợi là nguồn phân xanh, chất xơ và có thể làm nhiên liệu sinh học.
Crotalaria juncea L., 1753
Кроталя́рия си́тниковая (лат. Crotalária júncea) — травянистое растение, вид рода Кроталярия (Crotalaria) семейства Бобовые (Fabaceae).
Одна из древнейших лубяных культур, в диком виде растение неизвестно. Выращивается в тропических регионах по всему миру.
Однолетнее травянистое растение, образующее множество прямостоячих стеблей 1—3(4) м высотой, цилиндрических, ребристых, до 2 см толщиной, покрытых опушением. Листья простые, очерёдные, линейно-эллиптические до продолговатых, ярко-зелёные, обычно с острой верхушкой, 4—12(15) см длиной и 0,5—3 см шириной, сверху с редким прижатым опушением, снизу более густо опушённые. Прилистники шиловидные, до 3 мм длиной, вскоре опадающие. Черешок около 5 мм длиной.
Соцветие — рыхлая верхушечная кисть 15—25(30) см длиной, состоящая из 10—20 цветков. Прицветники мелкие, линейные. Цветоножки 3—5 мм длиной. Венчик ярко-жёлтый до тёмно-жёлтого; флаг прямостоячий, почти округлый до продолговатого, 2—2,5 см шириной, иногда с красноватыми прожилками; крылья немного короче лодочки; лодочка тупо изогнутая, около 1 см длиной. Чашечка пятилопастная, лопасти её острые, опушённые, до 2 см длиной. Тычинки в числе 10, свободные почти до основания, 5 из них более длинные, чем 5 других.
Плоды — опушённые вздуто-цилиндрические бобы 2,5—4(6) см длиной, с коротким носиком, при созревании светло-коричневые, с 6—12 сердцевидными семенами 4—6 мм в диаметре, окрашенными в серо-оливковые, тёмно-серые, тёмно-коричневые тона до почти чёрных.
Дикие популяции кроталярии ситниковой в настоящее время неизвестны. Предполагаемая родина растения — Южная Азия: Индия, Бангладеш, Бутан.
В Европу растение было привезено в 1791 году. В настоящее время культивируется в Африке от Туниса до Южной Африки. Часто сбегает из культивации, встречаясь на рудеральных местообитаниях.
Семена, а также высушенная зелёная масса кроталярии используются на корм скоту. В свежем виде растения не поедаются.
Культивируется в тропических (реже — в субтропических и степных) регионах как лубяная культура, наиболее массово — в Индии, Бангладеш, Китае, Бразилии, менее значительные площади посевов в Вьетнаме, Пакистане, Корее, Румынии, на юге России. Имеются свидетельства о культивировании кроталярии в Индии для производства волокна в VI веке до н. э. Волокно из кроталярии используется для производства верёвок, канатов, бумаги, мешков, подошв, а также ковров, тканей.
Содержит пирролизидиновые алкалоиды, вследствие чего может использоваться в качества корма для скота только ограниченно.
Кроталя́рия си́тниковая (лат. Crotalária júncea) — травянистое растение, вид рода Кроталярия (Crotalaria) семейства Бобовые (Fabaceae).
Одна из древнейших лубяных культур, в диком виде растение неизвестно. Выращивается в тропических регионах по всему миру.
菽麻(學名︰Crotalaria juncea L.、英文名︰Sun Hemp)別名︰印度麻、太陽麻、赫麻、大金不換、自消容、蘭鈴豆,為豆科蝶形花亞科豬屎豆屬的常見綠肥植物。