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बैसिलेरिएसी ( Hindi )

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बैसिलेरिएसी(Bacillariaceae) काई वर्ग का एक कुल है, जिसके अंतर्गत डायटम (diatoms) आते हैं।

इसके प्रतिनिधि एककोशिकीय, अनेक आकार प्रकार तथा रूप के होते हैं। जैसे सामान्य बहुमूर्तिदर्शी (kaleidoscope) में काच के छोटे छोटे टुकड़े अनेक रूप के दिखाई देते हैं उन्हीं रूपों के सदृश से डायटम समूह भी होते हैं। प्रत्येक डायटम की कोशिका प्रचुर सिलिकायुक्त तथा इस बनावट की होती है मानो दो पेट्री डिश एक दूसरे में सटकर बंद रखे हों। प्रत्येक डायटम की जब ऊपरी तह से परीक्षा की जाती है, तो इसकी द्विपार्श्विक (bilateral), या अरीय सममिति (radial symmetry) के चिह्न स्पष्ट प्रतीत होते हैं। कोशिका के भीतर एक अथवा अनेक, विविध आकार के भूरे पीले से वर्णकीलवक (chromatophores) होते हैं। कोशिका के बाह्य तक्षण (sculpturing) के आधार पर डायटमों का वर्गीकरण होता है। प्रत्येक डायटम की दोनों कोशिकाभित्तियाँ, आंतरिक प्ररस सहित, फ्रसट्यूल (frustule) कहलाती हैं। ऊपरी कोशिका भित्ति एपीथीका तथा भीतरी हाइपोथीका कहलाती है और दोनों का सिलिकामय भाग लगभग चौड़े बाल्व का होता है, जिसके फ्लैंज (flange) सदृश उपांत (margin) संयोजी बैंड (connecting band) या सिंगुलम (cingulum) से लगे होते हैं। यह संयोजी बैंड वाल्ब के साथ प्राय: अच्छे प्रकार से जुड़ा होता है। कभी कभी एक से अधिक भी संयोजी बैंड होते हैं। ये आंतरीय बैंड कहलाते हैं। फ्रस्ट्यूल को वाल्व की छोर से देखने पर वाल्व तल (valve view) तथा संयोजी बैंड की ओर से देखने पर वलयीतल (girdle view) दिखाई देता है। कुपिन (Coupin) के मतानुसार वह पदार्थ जिसके द्वारा फ्रसट्यूल सिलिकामय हो जाता है, ऐल्यूमिनियम सिलिकेट है। पियरसाल (Pearsall सन् १९२३) के मतानुसार जल माध्यम में सिलिकेट लवणों की प्रचुरता से प्रजनन में सहायता होती है। वाल्व में जो सिलिकीय पदार्थ एकत्रित होता है, वह केंद्रिक डायटम में एक केंद्रीय बिंदु के चारों ओर अरीय सममित होता है। पिन्नेट डायटमों में अक्षीय पट्टिका (axial strip) से यह द्विपार्श्व सममित या असममित (asymmetrical) हो सकता है। कुछ समुद्री केंद्रिक डायटमों में तक्षण पर्याप्त खुरदुरा सा होता है। यह विशेषत: यत्र तत्र गर्तरोम (areoles) के कारण होता है। इन गर्तरोमों में बारीक खड़ी नाल रूपी (vertical canals) छिद्र (pores) होते हैं। कुछ पिन्नेलीज़ (Pennales) डायटमों में एक या अधिक सत्य छिद्र (perforations) हो सकते हैं, जो गेमाइनहार्ट (Gemeinhardt, सन् १९२६) के अनुसार मध्य (median) अथवा ध्रुवीय होते हैं। ये पतले स्थल, जिन्हें पंकटी (Punctae) कहते हैं, कतारों में विन्यसत तथा वाल्व की लंबाई के साथ जाती हुई लंबायमान पट्टिका, जिसे अक्षीय क्षेत्र (Axial field) कह सकते हैं, द्विपार्श्विक रूप में होते हैं। यह अक्षीय क्षेत्र बनावट में सम हो सकते हैं, अथवा इनमें एक लंबी झिरी, राफे (Raphe), हो सकती है। लंबी झिरी से रहित अक्षीय क्षेत्र कूट राफे (Pseudornaphe) कहलाता है। एक फ्रस्ट्यूल के दोनों वाल्व के अक्षीय क्षेत्र प्राय: समान होते हैं, यद्यपि कुछ जेनेरा में एक में राफे हो सकता है तथा दूसरे में कूट राफे। प्रत्येक राफे के मध्य में भित्ति के स्थूलन से एक केंद्रीय ग्रंथि (central nodule) बन जाती है और दोनों सिरों पर प्राय: ध्रुवग्रंथियाँ (polar nodules) भी होती हैं।

फ्रस्ट्यूल के भीतर प्रोटोप्लास्ट (protoplast) में सर्वप्रथम साइटोप्लाज़्म (cytoplasm) की एक तह होती है, जिसमें एक या अनेक वर्णकण होते हैं। साइटोप्लाज़्म के और भीतर एक स्पष्ट रिक्तिका के मध्यभाग के कुछ साइटोप्लाज़्म में एक गोल सा नाभिक स्थित रहता है। वर्णकण अनेक प्रकार के हो सकते हैं। इन्हीं में पाइरीनाएड मौजूद होते हैं, अथवा नहीं भी होते। वर्णकण प्राय: सुनहरे रंग के होते हैं। सुरक्षित भोज्य सामग्री प्राय: वसा है। राफे से युक्त डायटम गतिशील होते हैं। इनकी गति लंबे अक्ष पर झटके से होती है। ये झटके एक के बाद एक होते हैं। कुछ आगे बढ़ जाने पर वैसे ही एक झटके से डायटम रुक जाता है और पुन: पीछे की ओर आता है। मुलर (१८८९, १८९६ ई.) के मतानुसार डायटम की यह गति साइटोप्लाज़्म में धाराओं (streaming cytoplasm) के कारण होती है। डायटम में कोशिकाविभाजन भी होता है। इस क्रिया में दो संतति-कोशिकाएँ (daughter cells) निर्मित हो जाती हैं, जो आपस में स्वभावत: छोटी बड़ी होती हैं। नाभिकविभाजन के साथ ही वर्णकण भी विभाजित होते हैं। कोशिका विभाजन के फलस्वरूप एक अनुजात प्रोटोप्लास्ट का अंश इपीथिका के भीतर रहता है और दूसरा हाइपोथीका में। इसके उपरांत प्रत्येक संतति अंश में दूसरी ओर की कोशिकाभित्ति निर्मित होकर, दो नए डायटम तैयार हो जाते हैं। अनुमान किया जा सकता है कि नवनिर्मित आधा भाग सदैव हाइपोथीका होगा तथा पुराना अवशिष्ट भाग चाहे वह पहले एपीथिका रहा हो या हाइपोथीका, इस नए डायटम में सदैव एपीथीका होगा। इससे एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि इस प्रकार प्रत्येक विभाजन के फलस्वरूप कोशिकाएँ धीरे धीरे आकार में छोटी होती जाएँगी (इसे मैकडानल्ड-फित्जर नियम भी कहते हैं) परंतु असल में आगे चलकर छोटे आकर की नवीन कोशिकाएँ ऑक्सोस्पोर (auxospores) बनकर, पुन: प्रारंभिक आकार की कोशिकाओं को उत्पन्न कर देती है। पिन्नेलीज़ र्व में ये ऑक्सोस्पोर दो कोशिकाओं के संयुग्मन से बनते हैं। दो कोशिकाओं के संयुग्मन से दो आक्सोंस्पोर बन जाएँ, या दो कोशिकाएँ आपस में एक चोल में सट जाएँ और प्रत्येक बिना संयुग्मन के ही एक एक आक्सोस्पोर निर्मित कर दे, अथवा केवल एक कोशिका से एक आक्सोस्पोर बन जाए, या एक कोशिका से दो आक्सोस्पोर भी बन जा सकते हैं। सेंट्रेलीज़ वर्ग में लघु वीजाणु (microspers) भी उत्पन्न होते हैं। इनकी संख्या एक कोशिका के भीतर ४, ८, १६ के क्रम से १२८ तक हो जाती है। कार्सटेन (१९०४ ई.) एवं श्मिट (१९२३ ई.) के अनुसार इन लघु बीजाणुओं का निर्माण साइटोप्लाज़्म में खचन और फिर विभाजन के फलस्वरूप होता है। गाइटलर (१९५२ ई.) के मतानुसार यह क्रिया अर्धसूत्रण (meiosis) पर आधारित है। इन लघु बीजाणुओं में कशाभ (flagella) भी होते हैं। अनेक केंद्रिक डायटमों में मोटी भित्तियुक्त एक और प्रकार के बीजाणु होते हैं, जिन्हें स्टैटोस्पोर (statospores) कहते हैं।

डायटमों का वर्गीकरण मुख्यत: शुट (Schutt, १८६६ ई.) के वर्गीकरण के आधार पर ही हुआ है। इसमें मुख्य तथ्य कोशिकातक्षण की विभिन्नता है। फॉसिल रूप में डायटम बहुसंख्या में प्राप्त होते हैं, यहाँ तक कि इस पुंज को डायटम मृत्तिका (diatomaceous earth) की संज्ञा दी गई है। इन फॉसिल डायटमों के लिए भी यह वर्गीकरण उपयुक्त है। अधिकांश फॉसिल डायटम क्रिटेशस युग के पूर्व के नहीं हैं। इनकी प्रचुर संख्या एवं मात्रा सेंटामैरिया ऑएल फील्ड्स, कैलिफॉर्निया में प्राप्त हुई है। ये फॉसिल ७०० फुट मोटी तहों में व्याप्त हैं, जो मीलों लंबी चली गई हैं। फॉसिल डायटमों की मिट्टी व्यावसायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। चाँदी की पॉलिश करने में यह उपयोगी है एवं द्रव नाइट्रोग्लिसरिन को सोखने के लिए भी उपयुक्त है, जिससे डायनेमाइट अधिक सुरक्षा से स्थानांतरित किया जा सकता है। आज लगभग ६०% डायटम मृत्तिका चीनी परिष्करणशालाओं में द्रवों को छानने के काम में आती है। इसके अतिरिक्त इस मृत्तिका का उपयोग किसी अंश तक पेंट तथा वारनिश आदि के निर्माण में भी होता है। वात्या भट्ठियों में, जहाँ ताप अत्यधिक होता है, डायटम मृत्तिका ऊष्मारोधी के रूप में भी प्रयुक्त की जाती है। सामान्य ताप तो क्या ६०० डिग्री सें. ताप तक यह ऊष्मारोधी के रूप में पूर्णत: सफल रहती है।

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